गीता प्रेस, गोरखपुर >> भगवान कैसे मिलें भगवान कैसे मिलेंजयदयाल गोयन्दका
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प्रस्तुत है भक्त को भगवान कैसे मिलें....
महापुरुषों की महिमा तथा वैराग्य का महत्त्व
जो अपनेको पुजवाता है महापुरुष भी उससे घृणा करते हैं। जो अपनेको पुजवाता है वह कुष्ठ रोगी है, उससे दूर ही रहो। महापुरुषोंके दर्शन, स्पर्श एवं भाषणसे कल्याण-ही-कल्याण है। भगवान्के दर्शनसे भक्तोंको जैसे आनन्द आता है, इसी प्रकार महापुरुषोंके दर्शनसे श्रद्धालुको आनन्द आता है। महापुरुषोंकी आये, उनकी पक्की पहचान यही है।
महापुरुषोंकी आज्ञाका पालन, उनकी सेवा बहुत मूल्यवान् है, वह भी यदि गुप्तरूपसे करे तो अधिक मूल्यवान् है। गुप्तको वह स्वयं ही जाने, दूसरा कोई न जाने या परमात्मा सर्वज्ञ हैं, वह जानें। दूसरे आदमियों को जनानेन की आवश्यकता नहीं है, जनाने से वह हलका हो जाता है।
एक मनुष्य महात्माकी आज्ञा के अनुसार करता है, लोग समझते हैं यह अपने मनके अनुसार करता है तो वह मूल्यवान् है। सेवा, पूजा, भजन, ध्यान, आज्ञापालन सब गुप्त रूपसे कर, भगवान्का तुलसी-चरणामृत गुप्त रूपसे ले, सारी बात मानसिक ही करे।
अपनेमें कुछ अच्छापन हो तो उसे छिपाकर रखे, थोड़ी भी बुराई हो तो उसे प्रकाशित करे। बुराई हो ही नहीं तो चुप रह जाय, किन्तु अपनी भलाई नहीं गानी चाहिये।
जैसा कहे वैसा ही करे। ऐसे मनुष्य संसारमें बहुत कम हैं। यदि करे तो उसका असर पड़ता है।
दूसरे आदमी जो हमारी भलाईका बखान करते हैं, उसे मैलेके समान समझकर दूर फेंक दे।
मैलेको मैला समझे। अच्छे आदमियोंका संग करो, वे स्वत: ही समझा देंगे। महात्मा कहलाना नहीं चाहिये, अपितु महात्मा बनना चाहिये। आपको दुनिया चोर, बदमाश कहे, किन्तु आप वास्तवमें महात्मा हैं तो कोई आपको रोकनेवाला नहीं है।
भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रजीकी लीला देखकर जैसी गोपियोंकी उनके दर्शनसे श्रद्धालुकी हो सकती है। गौरांग महाप्रभुके जो अनुयायी थे, उनकी प्रेमावस्था देखकर उनकी स्थिति उसी तरह हो जाती थी।
ईश्वर और महात्माओंमें गुप्त प्रेम अधिक मूल्यवान् है। गुप्तका माहात्म्य बहुत ज्यादा है, उसमें दोष नहीं रह सकता। चरणोंकी सेवा करनी हो तो मनसे करे। बाहरमें कोई सेवा बन जाय तो उसे प्रकाशित नहीं करे, अपितु छिपावे।
प्रश्न-सत्संगमें सुनी हुई बातें याद नहीं रहतीं।
उत्तर-इसका कारण है कि श्रद्धा नहीं है, श्रद्धाकी आवश्यकता है। श्रद्धाके लिये मूल उपाय है भगवान्से प्रार्थना। खाने या भोगनेकी जिस वस्तुमें प्रेम है वह बहुत याद रहती है। जिसे आमोंसे प्रेम है वह बतला देगा कि लँगड़ा अच्छा है या बंबइया अच्छा है, किसी विरक्तसे पूछो तो उनके लिये सारे आम एक ही हैं। वास्तव में जो कुछ है श्रद्धा-प्रेम ही है। जब वैराग्य होता है तब रागवाली चीजें फीकी पड़ जाती हैं। आपको जब वैराग्य होगा, तब इत्र, लवेण्डर पेशाबके समान लगने लगेगा। जो मांस नहीं खाता, उसे कसाईकी दुकानकी ओर ले जाया जाय या वह स्वाभाविक ही चला जाय तो उसे यह मालूम देगा कि कहाँ चले आये। इसी प्रकार संसारके भोगोंको देखकर विरक्तोंकी दशा होती है।
ईश्वरकी कृपासे, नाम-जपसे, ध्यानसे, स्वाध्यायसे, वैराग्यसे साधन तेज होता है। वैराग्यसे सारे दोष भाग जाते हैं। जैसे लाख उपाय करो, किन्तु सूर्यके सम्मुख अन्धकार नहीं रह सकता। इसी प्रकार जहाँ वैराग्य है वहाँ कोई दोष नहीं ठहर सकता। एक वैराग्य है तो सारे गुण अपने-आप आ जाते हैं। जिसमें वैराग्य होगा, वह मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा से दूर भागेगा। मान, बड़ाई, पूजा प्रतिष्ठामें प्रीति तो रागका बाप है।
चाहे साधु हो चाहे गृहस्थ हो, जहाँ वैराग्य नहीं है, वहाँ कुछ भी नहीं है। जहाँ वैराग्य होगा वहाँ उपरति होगी। साधु है एवं कंचन-कामिनीका संसर्ग है तो उपरति कहाँ। मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा प्रिय है तो वैराग्य कहाँ है, उसे तो दूरसे ही नमस्कार करो।
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- भजन-ध्यान ही सार है
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